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Friday, 4 May 2018

पिता पुत्र की भावनाओं का मंथन 
102 नॉट आउट 
निर्देशक : उमेश शुक्ला 
मुख्य कलाकार : अमिताभ बच्चन, ऋषि कपूर 
अवधि : 1 घंटे 45 मिनट 
गुजराती नाटक पर आधारित उमेश शुक्ला की फिल्म '102 नॉट आउट' की कहानी को लेकर कोई सस्पेंस नहीं रखा गया था। ट्रेलर से ही जाहिर हो गया था कि पिता पुत्र के रिश्तो की इस कहानी का दिलचस्प पहलू यह है कि पिता 102 साल का है और बेटा 75 साल का। 
कहानी का आधार मुंबई है, जहां पुराने दौर के हवेलीनुमा घर में दत्तात्रेय वखारिया ( अमिताभ बच्चन ) अपने पुत्र बाबूलाल ( ऋषि कपूर ) के साथ रहते है। पिता दत्तात्रेय जहां अब भी सबसे ज्यादा जीने की रिकॉर्ड को तोड़ने की हसरत रखते हैं, वही पुत्र बाबूलाल की जिंदगी उदासियों से भरी हुई है। बाबूलाल की उदासी के दो कारण है : एक तो पत्नी का देहांत हो गया और दूसरा, इकलौता बेटा अमेरिका जा कर सेटल हो गया। स्वभाव के दो विपरीत छोरों पर खड़े पिता-पुत्र की इस दास्तान में नया मोड़ उस वक्त आता है, जब दत्तात्रेय तय करते हैं कि जिंदगी को बोझ समझ कर जीने वाले बेटे बाबूलाल को वृद्धाआश्रम भेज दिया जाए। इससे बचने के लिए बाबूलाल के साथ शर्तों को सिलसिला शुरू हो जाता है। इन शर्तों के साथ पिता पुत्र के रिश्ते में नए पड़ाव आते हैं। अपने बेटे के मोह को लेकर बाबूलाल को आईना देखने को मिलता है और अंत में वही होता है, जो दत्तात्रेय अपने बेटे के लिए चाहते थे। 
निर्देशक उमेश शुक्ला ने पिता-पुत्र के रिश्तो को एक नया नजरिया देने की कोशिश की है। उनके इस पड़ाव पर, जहां पिता पुत्र दोनों एक दूसरे पर निर्भर हो जाते हैं, वहां इन रिश्तो की अहमियत और ज्यादा बढ़ जाती है। उमेश शुक्ला की फिल्म का विजन इसी दायरे में है और इसे समझाने में वक्त नहीं लगता। उमेश शुक्ला का निर्देशन दोनों किरदारों के साथ दर्शकों का भावात्मक संबंध जोड़ने में सफल होता है। बाकी का काम अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर की बेजोड़ अदायगी भी आसान कर देती है। अमिताभ और ऋषि कपूर में से कौन श्रेष्ठ रहा। 102 साल के जिंदादिल शख्स के रोल में अमिताभ बच्चन छा गए, लेकिन ऋषि कपूर अपने किरदार में ज्यादा चुनौती भरे रहें। ऋषि कपूर ने जिस तरह अपने किरदार के लिए खुद को नियंत्रित रखा और किरदार की हर जरूरत को समाहित किया, वह लाजवाब है। एक लाइन में कहा जाए तो दोनों दिग्गज अभिनेता अपनी-अपनी जगह लाजवाब रहे। इन दोनों के अलावा किसी तीसरे किरदार का जिक्र होगा तो वह जिमित त्रिवेदी का है, जो दर्शकों के लिए बोनस है। 
यह फिल्म हर उस पिता के लिए है, जिसके बच्चे उसे बुढ़ापे में अकेला छोड़कर दूर हो जाते हैं और पिता उन बच्चों के इंतजार में खुद की जिंदगी को बोझ बना लेते हैं। यह फिल्म हर उस पिता के लिए है जो 102 साल की उम्र को बोझ नहीं मानता और उसे सलीके से जीने का रास्ता चुनता है। यह फिल्म हर उस बेटे के लिए है जिसके पिता रिश्तो को लेकर उसे उसके बेटे ( यानी अपने पोते ) से ना हारने देने के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगा देते हैं और यह फिल्म हर उस बेटे के लिए जिसे लगता है, कि बूढ़े पिता की जायदाद उनका जन्मजात हक है। 

कमजोरियां की बात करें तो रिश्तो की यह गाथा नई नहीं है, लेकिन ताजगी का अहसास जरूर कराती है। फिल्म का पहला हाफ काफी धीमा है। पिता-पुत्र किरदारों को जमाने में ज्यादा ही वक्त लगने से दूसरे हाफ में घटनाओं को आगे बढ़ाने में वक्त नहीं मिलता। फिर भी दूसरे हाथ में घटना चक्र दिलचस्प है। फिल्म के लेखन की कमजोरी यह है कि हम घटनाओं का एहसास काफी पहले हो जाता है जिससे आगे जानने की उत्सुकता कायम नहीं रह पाती। निर्देशक के तौर पर उमेश शुक्ला अपने ही गुजरती प्ले दायरे से बहार नहीं निकल सके और छोटी सी कहानी को बहुत विस्तार नहीं दे सके। यह उन्होंने ऐसा कहना जरूरी नहीं समझा। 

फिल्म पारिवारिक है। दर्शको को पिता-पुत्र के रिश्तो के जज्बाती सफर पर ले जाती है। ये सम्बन्ध भावुक भी करेंगे और हसी  के पल भी जुटाएंगे। फिल्म में बाकि मसाले नहीं है। यह भी फिल्म की खूबी कही जाएगी। 

शब्दों को किताब पुत्र के रिश्तो के जज्बात इस नंबर पर ले जाती है यह संबंध भावित भी करेंगे हंसी के पल भी जुटाएंगे फिल्में बाकी मसाले नहीं है यह भी फिल्म की खूबी कही जाएगी 
तकनीकी मामलों में फिल्म सामान्य है। सिनेमेटोग्राफी अच्छी है, तो एडिटिंग में पहला हाफ कमजोर है। लोकेशन वगैरा सामान्य है। संगीत भी सामान हीं है। दोनों किरदारों के लिए मेकअप टीम को बधाई जरूर बनती है। 

यह मसाला फिल्म नहीं है। इसमें आइटम गाने नहीं है, लेकिन जज्बाती कहानी है। अगर फिल्म की कुछ कमजोरियां को स्वीकार कर ले, तो यह फिल्म पिता पुत्र को अपने अपने रिश्तो पर सोचने का मौका जरूर देंगी,  यही फिल्म की कामयाबी और मंजिल है

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